टोकन व्यवस्था की अव्यवस्था और किसानों की चीख — सत्ता के गलियारों तक क्यों नहीं पहुँचती दर्द की पुकार? 🔥
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महासमुंद के उस किसान भाई की भयावह घटना, जिसने टोकन न मिलने की लगातार मार, अपमान, चक्कर और प्रशासनिक तानों से टूटकर अपने ही गले पर ब्लेड चला लिया — यह सिर्फ एक किसान की त्रासदी नहीं है, यह पूरी व्यवस्था के मुँह पर तमाचा है। यह घटना बताती है कि सत्ता में बैठे लोग, उनके समर्थक, और जमीनी स्तर पर बने चमचे किस तरह किसानों के दुखों के प्रति क्रूर, संवेदनहीन और पूरी तरह आँखें मूंदे हुए हैं।

सरकारें बदलती रहती हैं, लेकिन किसानों की पीड़ा नहीं बदलती। आज किसान रो रहा है, तड़प रहा है, और शासन अपने फोटो, अपने शो और अपने झूठे दावों में मग्न है। टोकन प्रणाली किसानों के लिए राहत बननी थी, लेकिन यह अब यातना का नया अध्याय बन गई है। और सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब किसान आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाए, तब सरकार, उसके प्रवक्ता और उसके सोशल मीडिया के योद्धा आखिर किस मुँह से विकास के दावे करते हैं?
किसान टोकन के लिए मरें… और सत्ता के लोग चुप?
किसान धान काटकर, पंखे के नीचे नहीं, धूप में लाइन में खड़े होते हैं।
उनके हाथ में न मोबाइल है, न तेज इंटरनेट, न रोज़ सोसायटी के चक्कर लगाने की क्षमता।
दिन–दिन भर चक्कर…
रात की नींद हराम…
और फिर भी टोकन नहीं।
लेकिन सत्ता के समर्थक कहते हैं — “सब ठीक है, व्यवस्था पारदर्शी है।”
क्या यही पारदर्शिता है कि एक किसान को मजबूरी में अपना गला काटने जैसा कदम उठाना पड़े?
किसानों का खून बह रहा है, और सत्ता के लोग तालियाँ बजा रहे हैं
सत्ता के आसपास घूमने वाले कुछ तथाकथित कार्यकर्ता और चमचे केवल दो काम करते हैं—
1️⃣ नेता की चापलूसी
2️⃣ किसानों की पीड़ा को “राजनीति” बताकर दबाना
किसान का खून जमीन पर गिर रहा है, और ये लोग मोबाइल निकालकर वीडियो बना रहे हैं, बयान जारी कर रहे हैं, और फिर भी कहते हैं—
“सरकार बिल्कुल सही है।”
किसान मर जाए, लेकिन सरकार की छवि चमकनी चाहिए — यही आज की राजनीतिक मानसिकता है।
किसानों के हिस्से की लड़ाई कौन लड़े?
जब किसान कहता है—
“भैया, मुझे टोकन दिला दो, बस इतनी मदद कर दो…”
तो सत्ता पक्ष का कार्यकर्ता जवाब देता है:
“अरे जाओ, सिस्टम देखो…”
लेकिन जब वोट चाहिए होता है,
तो यही किसान “माँ-बाप” बन जाते हैं।
चुनाव के बाद वही किसान “झंझट” बन जाते हैं।
जिस किसान के दम पर सरकारें बनती हैं,
उसी किसान के लिए आज टोकन तक मिलना भारी हो गया है।
टोकन सिस्टम: किसान की परीक्षा या किसान का अपमान?
इस व्यवस्था ने किसान को कहीं का नहीं छोड़ा—
रोज़ सोसायटी जाओ
सिस्टम बैठा है
नेट नहीं चल रहा
पोर्टल डाउन
कंप्यूटर ऑपरेटर गायब
और आखिरकार किसान थककर कहता है—
“मेरा धान सड़ जाएगा, मैं क्या करूँ?”
लेकिन नेता कहते हैं—
“व्यवस्था बहुत अच्छी है।”
अगर यह व्यवस्था है, तो अव्यवस्था किसे कहते हैं?
सरकारी दावे कागज में मजबूत… जमीन पर कमजोर
सरकार कहती है —
✔ धान खरीदी रिकॉर्ड तोड़
✔ किसानों को लाभ
✔ टोकन व्यवस्था डिजिटल
लेकिन जमीन पर हकीकत है —
❌ किसान लाइन में बेहोश
❌ किसान मानसिक तनाव में
❌ किसान आत्महत्या की कोशिश कर रहा
❌ किसान को धान बेचने तक के लिए संघर्ष
अगर सरकार के कान अब भी बंद हैं,
तो समझ लीजिए कि यह सत्ता किसानों की नहीं,
कुर्सी की सेवा में जुटी है।
यह सिर्फ आत्महत्या का प्रयास नहीं — यह चेतावनी है
किसान ने ब्लेड चलाकर सिर्फ खुद को नहीं काटा,
उसने उस व्यवस्था की पोल काट दी है
जो किसानों को “दिखावटी सम्मान” देती है लेकिन
वास्तविक समस्याओं पर चुप रहती है।
यह घटना कहती है—
“अब बहुत हुआ।”
अगर शासन और उसके समर्थक इस आवाज़ को भी अनसुना करेंगे,
तो आने वाले समय में किसान आंदोलित होगा,
और तब कोई चमचा, कोई कार्यकर्ता, कोई नेता उसे रोक नहीं पाएगा।
किसान की चीख को राजनीति मत कहिए
जब किसान बोलता है,
तो उसे विपक्षी एजेंडा बता दिया जाता है।
लेकिन जब किसान मरता है,
तब सरकार कहती है—
“हमें दुख है।”
दुख नहीं चाहिए —
समाधान चाहिए।
टोकन चाहिए।
सम्मान चाहिए।
नीतियां चाहिए जो farmer-friendly हों।
वह सिस्टम चाहिए जिसमें किसान जिंदा रहे।
अंत में…
महासमुंद की यह घटना सिर्फ शुरूआत है।
अगर सरकार और उसके समर्थक अब भी जागे नहीं,
तो यह आग पूरे प्रदेश में फैल सकती है।
सत्ता का असली मूल्यांकन
posters, tweets और press notes से नहीं,
बल्कि किसान की मुस्कान से होता है।
और आज किसान मुस्कुरा नहीं रहा —
वह खून बहा रहा है।
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